साक्ष्य

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खोजूं तेरे समभाव
शब्दों की धुरी में,
तेरी आदतों में छिपती है
मेरी परछाइयों के निशाँ |
तू सर्द में है वो मख़मली कम्बल,
ओढ़ते ही जो भुला दे दिन रात का पता |
हरारत में तेरी उँगलियों के छींटे,
सौंप दे जो ओस की सीत्कार,
तू शब्द है ऐसे प्रचंड,
लगते ही कर दे संहार मेरा |
तस्वीर में बस्ती वो शांत सा सागर,
जो होता अक्सर आँखों का धोखा,
हर लहर से तू सींचती लोचन,
बंजर की तारक, फूलों का दस्ता |
तू गगन का नील, बादलों का गुच्छा,
पंखियों की चहक, हवा का झोंका |
सुबह के स्वागत की चाय की चुस्की,
हर ताज़े में रहती ताज़गी की मस्ती,
एकांत में बस्ता चैन का संवाद,
चर्म पे लगती जीवन की सांस |
तू आग में जलती क्रोध की ज्वाला,
पानी में रहती शांत सी धारा |
खारे से स्वाद की चाशनी चाहत,
गिरते दुर्ग के पकड़ की राहत |
व्याकुल के मन की जीवित शमन,
शिकस्त के अगली जीत का नमन |
मायूस के दिल की अंतिम आस,
परवरिश में लगती ममता की रास |
भूखे के मुँह का पहला निवाला,
प्यास बुझाती आखरी बूँद |
तू रहती हर एहसास के मध्ये,
जहाँ घुलता है अमृत का प्याला |
हर अति में है तू नाज़ुक सी सुस्ती,
वो सुकून की नींद जो नित्य है बस्ती,
बगीचे में रखे चारपाई पर,
पत्तों से बिछे रज़ाई पर,
जहाँ चलती है शीतल सी प्रवाह,
तपती दुनिया में बरक़रार छाँव |

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