सूर्यास्त

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बादल, चंदा, तारे एक तरफ,
पर सूर्य हमारा अतुलनीय।

हमारे आसमान का पहरेदार,
एक लौता ब्रह्मांडीय जीव,

हमारे किरमिच की शान,
अकेले ही बढ़ाता,

जिसके चारों ओर हम
चक्कर लगाते।

और क्यों न लगाएँ?
चीज़ ही है ऐसी!

हमारे अवकाश का तर्क,
हमारे अस्तित्व का कारण,

दिन भर साथ निभाकर,
ढल कर भी अपनी छाप छोड़ जाता।

कि था कोई देखो अकेला,
अंबर की चौड़ाई मापने वाला।

पूरे दिन हमें ताक कर,
उजाले का परचम फहराता।

और अंततः किसी शूरवीर की भाँति,
अंधकार में विलीन हो जाता।

वह शाम की लालिमा—
सबका साझा चलचित्र।

ऐसे अचंभे का अस्त देखने,
सब जीव बाहर आते—

बंदर, हाथी, घोड़े,
आकर ध्यान लगाते।

हर शाम पंछी क्यों,
ऊँची जगह पाते?

एक लंबे अंधियारे की तैयारी हेतु
अपना घर खोजते,

सतर्क आँखों की चाल—
कहीं अँधेरे का शिकार न हो जाए।

इस आस में कि आज का शौर्य
कल भी देख पाएँ,

फिर ऊँचाइयों पर चढ़,
उसका का स्वागत कर पाएँ—

उस शूरवीर का, जो हर दिन
आसमान को नापता,

जो बिना किसी भय
अपना पहिया चलाता,

और सदेव आगे बढ़,
हमें भी आगे बढ़ना सिखाता।

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