रुमाली रोटी

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“रुमाली रोटी!
आज फिर तेरी याद आयी रे!”
मन अचरज में पड़ा
की इतनी पतली हो कर भी
तू कैसे भर देती पेट मेरा?
रूमाल की हरकतें देख कर
है तेरा नाम पड़ा,
कई बार तो मैं धोखा खा कर
जेब में तुझे ले चल पड़ा।
न तू टूटती है निचोड़ने पर,
न तू टूटती है चिकोटने पर,
और बाक़ी रोटियों की तरह,
तू नहीं जलती मुझे भूखा देख कर।
सब्ज़ी में जिस तरह तू छलांग लगाती
और गोते खाकर मुँह का निवाला बन जाती;
पूरे दस नंबर देने का जी करता है तुझे।
पापड़ हैरान है की तू इतनी शांत कैसे,
रोटियाँ का सवाल है तू इतनी सुंदर कैसे,
इतनी बड़ी होने के बावजूद भी विनम्र कैसे,
और पाँव समेटे दिल थामे बैठी है कैसे
अपने मोक्ष के इंतज़ार में,
पनीर के मख़मली गद्दे पर
अपने नर्म चादर से सपने संजोती
बैठी है मौन विचारों को ले कर
लोगों के मुँह में पनपते समंदर
की लहरों को सींचने के,
की थोड़ा कष्ट तो दूँगी,
इतनी जल्दी नहीं हार मानूँगी,
अगर खाया ना मुझे गरमागरम
तो दांतों से समझौता जल्द न करूँगी,
अंत में जाऊँगी तुम्हारे पेट को तृप्त करने
और एक दो में ही तुम्हें समझा दूँगी,
की मैं रोज़ की मोहताज़ नहीं।
एक बार फिर याद आऊँगी
किसी शुभ अवसर पर,
ऐसे ही किसी पनीर को उठाने
कुल्हाड़ी बन कर
तुम्हारे सपने सजाऊँगी,
और फिर तुम कहोगे की, “यार!
रुमाली रोटी खाये हुए काफ़ी अरसे हो गये।”

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