मैं यहीं ठीक हूँ

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जब तुम ठहरे हो एक कगार पर,
कि अब टूटे की तब टूटे,
जहाँ टूटने के सिवा
और कुछ न कभी होता,
इंतज़ार के चौखट पर
शायद ही मन कभी सोता,
तो क्या फ़ायदा हथेलियों का?
जब रेत रोके न रुके,
जब हर सोच हो बिखरने की,
रास्ता हो फिसलने का,
थामने को जब कुछ न हो,
तो क्या फ़ायदा संभलने का ?
जब निश्चित ही हो गिरना,
जब तय ही हो बुझना,
तो क्या फ़ायदा माचिस का ?
जब तिल्लियाँ ही हो गीली,
अश्रुओं से हो भीनी,
तो क्या फ़ायदा बुझाने का ?
जब हर विस्तार हो सूखा,
और प्यासा लिखा हो झरना,
तो क्यों कोशिश करना ?
बंजर ज़मीन पर
आख़िर क्यों खुदाई करना ?
मेहनत हो सब बेकार,
तो क्यों ही संघर्ष करना ?
जब लिखित हो मार्ग,
तो क्यों पथ पर चलना ?
दो साँसे भर हूँ,
दो साँसे भर लूँ,
फिर तो है ही मरना ।

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