मैं भी कभी कभी लिख लेता हूँ

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मैं भी कभी कभी लिख लेता हूँ,
जलता हूँ अक्सर
उन लोगों से
जो कितनी आसानी से अपनी बात कह देते हैं,
जो दिल में होता है उसे तुरंत ही रख देते हैं |
कैसे?
कैसे ज़िन्दगी इतनी सहल कर रखी है भला?
क्यों नहीं कभी भरता तुम्हारी सोच का घड़ा?
वह क्या है जो करता है सब कुछ इतना सहज?
यहाँ तो शब्दों का चक्रव्यूह सा है रचा,
हर दिन ही लड़ाई है
खुद से,
कि कितना कुछ लिखना है,
कितना कुछ केहना है,
जो सब केहना है वो हलक पर है जा रुका,
छलाँग से डरता है,
की कहीं गिरा तो कभी चल पाएगा?
अपने पैरों पर कभी खड़ा हो पाएगा?
प्रतिबिम्ब में छिपता संकुचित सा इंसान,
जो शायद ही कभी तैयार हो पाएगा
इस बेरहम दुनिया से भिड़ने,
जो तौलती है शब्दोँ को तराज़ू में
और पैनी आँखों से तय करती है
किस्मत इंसानों की,
क़ीमत किताबों की |
क्या इतनी आहूति नहीं थी काफी
जो फिर से मांग रही
मेरे समय का महसूल?

मैं भी कभी कभी लिख लेता हूँ
जलता हूँ अक्सर,
उन लोगों से
जो हर पल लिखते रहते हैं |

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