एक पत्र कर्क को

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कर्क तूने खुद बड़ा हो कर
मुझे इतना सा बना दिया |

कितना गरम था यह मिज़ाज
तूने नरम ही बना दिया |

रातों की गायब नींद को
तूने झट्ट से सुला दिया |

जल्दी से बड़े होने की दौड़ को
तूने अपना ही बना लिया ?

क्या था वह मनगढ़ंत भय ?
तूने सब भय भुला दिया |

तुझ से अवगत होने पर
सब डर ही खफा हुआ |

चला रहा था सुकून में
शरीर-ए-यातायात

तूने बंद आँखें खोल
अंदर सब कुछ दिखा दिया |

मेरी अच्छी बुरी आदतों को
अस्तित्व ही मिटा दिया |

हर झूठे वादों को
तूने सच्चाइयों से मिला दिया |

और कह दिया मेरा जीवन
अब मेरा जीवन कहाँ ?

यह तो है मोहताज़
तेरे होने के मायने से |

इतनी सुइयां डाली मुझ में
की सारा दर्द ही चला गया |

अश्रुओं का सागर
कब से सूखा पड़ा है,

तेरे प्रलय के प्रकोप ने
मेरा रोना भी भूला दिया |

चादर ओढ़े बैठा हूँ कब से
तेरे द्वारा दिए जख्मों की,

तूने चलते फिरते पथिक को
रुकना सिखा दिया |

जो न नापता था कभी आगे का रस्ता
तूने उसे अपनी सांसें गिनना सिखा दिया |

कोलाहल तूफानों में भी
फूंक कर चलना सिखा दिया |

जो रहता था अक्सर कस्बों में
तूने उसे लोगों की फिदरत से मिला दिया |

और हर जीवों की करुण पुकार
को कानों तक पहुँचा दिया |

और ले चला उठा कर उसे
कुदरत के नज़दीक,

जहाँ बस तेरा वजूद,
और मेरा वजूद,

और वो समय का शांत संवाद,
जिसमें तू रोज़ करता हिसाब |

न जाने कितनी दवाईयों का पेड़ा
तू रोज़ दे रहा ये बेड़ा

छालों के भूचाल से
दे थोड़ा अवकाश

आने दे थोड़ा स्वाद
मेरी नीरस जीवन में |

क्या लेगा जाने का ?
जान तो बस एक ही है ?

या तो तू रहेगा,
या मैं |

जो लेने आया था वो ले चूका तू ,
जो देने आया था वो दे चूका तू ,

अब कर लेने दे थोड़ा विश्राम,
अब बदल दे अपना मार्ग |

शायद अब कुछ न चाहिए हो
मुझे अब इस दुनिया से
तूने सारी इच्छाओं को घोंटा है गला,

न चाहिए रोटी, न कपड़ा, न मकान
बस दे जा मुझे
मेरा जीवनदान |

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