बोल पड़ी मैं

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मैं गूंगी पतझड़ की
ना जाने किस वन की
ठहर गया कोई
आंगन में मेरे
कोई परिंदा दामन से मेरे
बाँध गया मुझे रूह से अपनी
झांक गया मेरे तन मन को
कह न सकी मैं
गूंगी थी मैं
की रुक जा परिंदे
सुन ले तू मेरी
पर नहीं पर
होंगे पर कभी
उड़ पाऊँगी तेरे संग मैं
चार दिवारी तोड़ के अपनी
देख तू देख बस देखते रह जा
चित्त मेरा छलांग लगाता है
भारी है आवाज़ ये इसकी पर
कुछ नहीं बहार आता है
हवा सी हलकी है मेरी आहें
भर ना सकुंगी मैं तेरी यादें
औरों के दरिया पानी से
चेह न सकूँ मैं
शोर में इतना
लोग युहीं दब जाते हैं
कहने को तो खूब है रहता
क्यों न कुछ कह पाते हैं
क्यों सुनती मैं जग की बातें
जग तो बात बनाता है
क्यों फिर भी ये चुप न रहते
बेहेरों की अपनी दुनिया में
आंख मूँद कर चुप मैं बैठी
चिल्लाने की आदत से
आवाज़ में मेरी खलबल सी है
लोगों के आने जाने से
मन्न भी है मेरा क्यों चिलमन
सब से छुपता फिरता है
क्यों सोचे क्या दुनिया सोचे
क्यों ही असर मुझे करता है
मंद ही मंद मुस्काये मन्न
हवा से बातें करने को
तेरे ख्यालों की दुनिया में
चाहे ये तेरे पाने को
जाने की जल्दी है इसको
जिस राह पर तू चलता है
आसमान के तारों के बीच
जहाँ तेरा ठिकाना रहता है

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